श्रीमद भागवत में श्री राधा जी
विद्वान और पंडित जन कहते हैं की जिस समाधि की अवस्था में भागवत पुराण लिखा गया और जब राधा जी का प्रवेश हुआ तो वेद व्यास जी इतने द्दोब गए कि राधा चरित लिख ही नहीं सके| और सच्च तो यह है कि जो भागवत के
प्रथम श्लोक
सच्चिदानन्दरुपाय विश्र्वोत्पत्यादिहेतवे .
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नम: .....
"श्री कृष्णाय वासुदेवाय" में "श्री" है...
इसका अर्थ है कि सबसे पहले राधा जी को नमन किया है |
"श्री कृष्णाय वयं नम:"
इसमें अकेले कृष्ण को नहीं
"श्री कृष्ण" को नमन किया है |
सनातन धर्म में शक्ति-विशिष्ट ब्रह्म कि पूजा है | निराकार ब्रह्म कि पूजा नहीं हो सकती | वही ब्रह्म जब शक्ति-विशिष्ट होता है...तभी उसकी पूजा हो सकती है |
"श्री" का अर्थ है "शक्ति" अर्थात "राधा जी" |
शुकदेव जी पूर्व जन्म में राधा जी के निकुंज के शुक (तोता) थे|
निकुंज में गोपिओं के साथ प्रभु क्रीडा करते थे और शुकदेव जी सारा दिन राधा-राधा कहते थे| यह देख एक दिन राधा जी ने हाथ उठाकर तोते को अपनी ओर बुलाया | तोता आकर राधा जी के चरणों कि वंदना करता है | वह उसे उठाकर अपने हाथ में ले लेती हैं और तोता फिर श्री राधे राधे बोलने लगा | तब राधा जी ने कहा, "अब तू राधा राधा नहीं, कृष्ण कृष्ण बोल" |
इस प्रकार राधा जी तोते को समझा ही रही थी कि तभी कृष्ण आ जाते हैं | राधा जी ने उनसे कहा कि यह तोता कितना मधुर बोलता है और उसे प्रभु के हाथ में दे दिया | इस प्रकार राधा जी ने ब्रह्म के साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध कराया |
इसलिए उस जन्म में शुकदेव जी कि सद्गुरु श्री राधा जी हैं और इसीलिए सद्गुरु होने के कारण भागवत में राधा जी का नाम नहीं लिया अर्थात अपने गुरु का नाम नहीं लिया | जिस प्रकार यदि पत्नी अपने पति का नाम ले, तो उसकी आयु घटती है, उसी प्रकार सद्गुरु को मन में स्मरण कर 'सद्गुरु कि जय" कहना चाहिए, मर्यादा भंग नहीं करनी चाहिए |
ऐसा शास्त्रों में वर्णन आता है | और दूसरा कारण राधा शब्द भागवत में ना आने का यह है कि यदि शुकदेव जी राधा नाम ले भी लेते तो वह उसी पल राधा जी के भाव में इतना डूब जाते कि पता नहीं कितने दिनों तक उस भाव से बहार
ही नहीं आ पाते | ऐसे में राजा परीक्षित के पास तो केवल सात ही दिन थे, फिर कथा कैसे पूरी होती|
हम यहाँ यह रहस्य भी बता रहें है की शुकदेव जी महाराज और कोई नहीं भगवान शिव के रूद्र अवतार थे जो महर्षि वेद्व्यास की घोर तपस्या करने के बाद श्रीमदभगवद् को जन जन तक पहुचाने के लिए ही जन्में थे , आखिर श्री राधाकृष्ण के संपूर्ण चरित्र को सुनाने का सामर्थ शिव के अतिरिक्त किसी अन्य मैं नहीं था।
जब प्रभु ने राधा जी से पूछा कि इस साहित्य में तुम्हारी क्या भूमिका होगी? तब राधा जी ने खा कि मुझे कोई भूमिका नहीं चाहिए, में तो आपके पीछे हूँ |
इसिलए कहा गया है कि
कृष्ण यदि शब्द हैं तो राधा अर्थ है , कृष्ण गीत हैं तो राधा संगीत ह,
कृष्ण वंशी हैं तो राधा स्वर हैं ,
कृष्ण समुन्द्र हैं तो राधा तरंग हैं,
कृष्ण पुष्प हैं तो राधा उस पुष्प कि सुगंध हैं |
इसीलिए राधा जी इसमें अदृश्य रही हैं| उनका नाम "गुप्त रीति" से दो तीन स्थानों पर लिया गया है |
भागवत में महारास के
प्रसंग का यह श्लोक विचारणीय है :
"तत्रारभत गोविन्दो रास क्रीडा मनु व्रते |
स्त्रीरतनैरविन्तः प्रीतैरन्योन्यबद्धबाहुभि:"
" अर्थात भगवान् श्री कृष्ण कि प्रेयसी और सेविका गोपिआं बहो में बाहें डाल खड़ी थी "