प्यार ही प्यार की बुरी मार, बता रहे हैं प्रदीप वेदवाल

Home Category साहित्य प्यार ही प्यार की बुरी मार, बता रहे हैं प्रदीप वेदवाल

ये बेचारा रुपमाला के प्यार का मारा

गंताक से आगे

सभी मित्रों को नेक एडवाइज देने के लिए मैंने उन्हें धन्यवाद दिया और पांच सौ रूपये का नोट पेप्सीपान पर खर्च कर मन में सुनहरे भविष्य के सपने बुनते हुए मैं पतली गली से घर की तरफ चल दिया। मेरा ध्यान तब टूटा जब में गली में एक बिजली के खंबे से टकरा  गया। मौहल्ले की एक भाभी ने टोंट कसते हुए कह, “क्यों देवरजी किसके ख्यालो ने डूबे हो”? मैं कुछ न बोल सका और शर्माते हुए घर की सीड़िया नापने लगा।

मित्रों द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों का अक्षरश: पालन करते हुए मेंने अपने रंग-ढंग बदल दिए। मुझमें आये बदलाव को देखकर मेरे घरवाले, रिश्तेदार ही नहीं बल्कि मौहल्ले से लेकर तमाम जान पहचान वाले भोचक्के थे कि यह वही कलमघसीट है या कोई और। गली मौहल्ले की बालाएं भी अब मुझसे रूचि लेने लगी थी । कल तक जो मुझे भाई कहती थी वो अब ए जी, ओ जी  एक्सक्यूज मी आदि शब्दो से पेश आने लगी।

गली नंबर सात की रूपमाला तो मुझ पर ऐसे फिदा हो गई कि मानो उसे सदियों से मेरा ही इंतजार रहा हो। येन-केन प्रकारेण उसने मुझसे अपना प्रेमभरा निवेदन कर ही डालाऔर मैंने बिना टाइम बर्बाद किए झट से हामी भर दी। प्रेम की प्राथमिक सफलता पर मेरा मन मयूर नृत्य करे लगा औऱ मैं अपने आप पर इतराने लगा।

दर्जा बारहवीं में तीन बार फेल होने पर भी रूपमाला दिखने में काफी रूपवती थी। पड़ाई-लिखाई में भले ही उसकी रूचि न हो लेकिन फिल्मी ज्ञान में वह इतनी एडवांस थी कि अच्छे-अच्छे फिल्मी पत्रकारों की छुट्टी कर देती थी। किस हीरो की कितनी बीबियां है, फलां हीरोइन ने कितनी बार तलाक लिया, अमुक हीरो की डेट ऑफ बर्थ क्या है, आजकल कौन सी हीरोइन गर्भवती है। इन सब बातों की उसे ऐसी पक्की जानकारी थी मानो फिल्मी दुनिया उसके पाठ्यक्रम का अनिवार्य विषय हो।

फिल्में तो रूपमाला के साथ मैं भी खूब देखता था लेकिन अति होने के कारण फिल्मों से मेरी आर्थिक स्थिति को क्षति पहुंच रही थी।  दिल्ली के चाणक्य, रिवोली, रीगल, से लेकर राधू, चांद, अलका आदि सिनेमाघरों के बुकिंग क्लर्क से लेकर टिकट चैकर्स तक साक्षी हं जो हमने कोई नई फिल्म छोड़ी हो।

एक दिन मैनें रूपमाला से पढ़ाई पर ध्यान देने को कहा, बस फिर क्या था परम्परावादी दकियानूसी, गंवार, कंजूस, अनाड़ी, दब्बू, मिट्टी के माधो, पोंगा पंडित आदि न जाने किन किन शब्दों से नवाज कर रूपमाला ने मुझसे हमेशा के लिए कट्टी कर ली औऱ मैं फिर अकेला हो गया। रूपमाला ने मुझे जो आर्थिक क्षति पहुंचायी है उसका वर्णन करना संभव है।

कुछ दिन बाद मैनें देखा कि रूपमाला मकान न चार सौ बीस में रहने वाले एक सेठ के छोरे की बांहों में बांहें डालकर घूम रही है। मेरे आहत मन ने कहा प्रेमपथ में बेवफा तो मिलती रहती है, ये न सही तो और कोई सही ।इसी सिद्धांत पर अमल करते हुए मैंने हिम्मत नहीं हारी और मैदान-ए-मौहकब्बत में डटा रहा।

जारी

प्रदीप कुमार वेदवाल की व्यंग्य पुस्तक प्यार ही प्यार से साभार

[Social Media Share Text/Image]