आज मेरे हरि को भूख लगी है...

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मैं अश्रुपूरित नेत्रों से आपको मेरे प्यारे हरि की एक अति ‘सुन्दर’ कथा सुना रहा हूँ.. संतों का प्रसाद है.. लीजिए..

रम जाईये और नेत्रों में जो जल आये उसे हरि को अर्पण कर दीजिए...याद रखिये- “वो पूछे कि ज़रिया तेरा क्या है मुझ तक.. मैं बोला कि दृग बिन्दु का है सहारा..” दृग बिन्दु का है सहारा.. दृग बिन्दु का है सहारा.. दृग बिन्दु का है सहारा..

आज हरि दुर्योधन के यहाँ आये हैं, शांतिदूत बन कर...
दुर्योधन कहाँ मानने वाला है.. सोच रहा है कि पाण्डवों के पास येही तो महान शक्ति है इसे बंदी बना लो.. ठीक सोचा, बहुत ठीक सोचा.. पर.... तरीका नहीं मालूम उसे.. सत्संग का अभाव है न.. और है कुसंग..

उनको बंधक बनाने के लिये सैनिकों से कहा.. अरे भाई, मेरे हरि को बंधक बनाना हो तो खुद जाओ और साथ में प्रेम का शस्त्र लो.. ‘पुष्टि भक्ति’- उनकी कृपा से की जाने वाली भक्ति से वो तुरंत बंध जाते हैं..( एक बात कह दूँ जो मन में आयी.. किसी और से पूजा न करवाया करो, खुद किया करो)..

हरि हरि हरि..

प्रभु ने अपनी शक्ति दिखा दी.. दुर्योधन डर गया.. क्षमा मांगी.. और कहा कि प्रभु भोजन स्वीकार करें.. प्रभु बोले कोई किसी का दिया भोजन केवल तीन वजह से स्वीकार करता है- ‘अभाव’, ‘प्रभाव’ और ‘भाव’.. अभाव हमारे है नहीं, प्रभाव मेरे ऊपर तुम्हारा कुछ है नहीं (हो सकता था यदि प्रेम होता, भक्तों हरि से प्रेम करो).. और भाव तुममें है नहीं.. इतना कह कर हरि वहाँ से चल दिए..

पर आज मेरे हरि को भूख लगी है.. बहुत भूख लगी है.. बहुत दिन हुए हैं कुछ खाए हुए.. शबरी ने बेर खिलाया था.. माखन भी खाया था.. पर द्वारिका में वो भी तो नहीं मिला..

भूख इसलिए भी लगी है क्योंकि आज एक भक्त भगवान को खिलाने की सोच रहा है.. आईये उस भक्त के पास चलें, हरि तो वहाँ आ ही रहे हैं..

भक्त हैं ‘विदुरानी’... सोच रही हैं कि विदुर जी बोले थे कि आज कन्हैया आवेंगे.. पर अपने पास तो कुछ है नहीं.. देखो, विदुर जी क्या लाते हैं.. फिर अपने कान्हा के लिये अच्छा-अच्छा खाना बनाउंगी.. ये सोचते हुए विदुरानी स्नान कर रही हैं..

अचानक से आवाज़ आयी “काकी”.. “ओ काकी”... अरे ये तो मेरे कान्हा की आवाज़ है.. काकी जैसे थीं वैसे ही दौड़ पड़ीं.. हरि ने पीताम्बर अपने भक्त पर डाल दिया.. हे हरि! हे हरि! हे हरि!.. (यहाँ हर एक चीज़ का महत्व है पर क्षमा करना अभी मेरी स्थिति नहीं कि कुछ चर्चा कर सकूँ.. हाथ काँप रहे हैं, आँखें धुंधली हैं.. फिर भी मेरे भाव आप भक्तों तक पहुँचें और आपके आशीष से हरि चरणों में प्रेम हो इस उद्देश्य से कुछ कह रहा हूँ)..

“काकी, अन्दर आ जाऊं”..

अरे हाँ, लाला.. आओ आओ.. काकी भूख लगी है जोर से.. हाँ लाला.. हाँ लाला.. विदुर जी.. क्या लाऊं.. कहाँ बिठाऊं...

पीढे पर नज़र गयी बिछा दिया पर उलटा.. बैठो लाला.. लाला तो भक्त को देख रहे हैं और भक्त हरि को.. और किस चीज़ का ध्यान रखा जाए..

क्या लाऊं.. क्या लाऊं.. हाँ.. अरे केले रखें हैं.. उठा लाईं टोकरी काकी.. हरि के भी होठों पर मुस्कान है और आँखों में आँसूं.. लो लाला खाओ.. केला छीलतीं.. छिलका उनके मुँह में देतीं और केला फेंक देतीं.. काकी बस कान्हा को निहार रही हैं.. लाला अच्छा लग रहा हैं न.. हाँ काकी और लाओ.. क्या सुन्दर दावत है..

इतने में विदुर जी आ गए.. ‘हाय राम ! ये क्या’.. बहुत खरी-खोटी सुना रहे हैं विदुरानी को.. पर विदुरानी तो हरि को देख रही हैं, छिलका खिला रही हैं.. हरि उन्हें देख रहे हैं और छिलका खा रहे हैं.. विदुर जी ने छिलका छीन कर केला हरि को दे दिया.. ‘ऊंहूं.. ये क्या है.. कहे कृष्णजी सुनो विदुरजी! वो स्वाद नहीं आवणा’....

“बासी-कूसी, रूखे-सूखे, हम तो विदुर जी ! प्रेम के भूखे,
शम्भु सखि धन धन विदुरानी, भक्तन मान बधावणा.”
भक्तन मान बधावणा.... भक्तन मान बधावणा... भक्तन मान बधावणा...

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