क्यों जाएँ तीर्थ स्थलों पर...?

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क्यों जाएँ तीर्थ स्थलों पर...?

एक शाम गंगा किनारे एक आश्रम में गुरु जी के पास कुछ शिष्यगण बैठे हुए कुछ धार्मिक स्थलों की चर्चा कर रहे थे।

एक शिष्य बोला:- ‘गुरु जी अब की बार गर्मियों में गंगोत्री, यमनोत्री की यात्रा करवा दीजिए। आपके साथ यात्रा का कुछ अलग ही आनन्द है, दर्शन के साथ-साथ हर चीज का महत्व भी सजीव हो जायेगा।’

दूसरा शिष्य कहने लगा:- ‘गुरु जी आप हमेशा कहते हैं कि ईश्वर व उसकी शक्ति कण-कण में व्याप्त है, वो घट-घट में है, आप में व मुझमें भी ईश्वर है। गंगा तो यहाँ भी बह रही है, फिर क्यों गंगोत्री, यमनोत्री जाएँ और 15 दिन खराब करें.? और कहावत भी है ‘मन चंगा तो कठोती में गंगा’।’

गुरु जी एक दम शान्त हो गये फिर कुछ देर के बाद बोले:- ‘वत्स, जमीन में पानी तो सब जगह है ना, फिर हमें जब प्यास लगे, जमीन से पानी मिल ही जायेगा तो हमें कुए, तालाब, बावड़ी बनाने की क्या जरूरत है।

कुछ लोग एक साथ बोले:- ‘यह कैसे सम्भव है गुरुदेव, जब हमें प्यास लगेगी तो कब तो कुँआ खुदेगा और कब पानी निकलेगा और कब उसे पीकर प्यास बुझाएँगे।’

गुरु जी बोले:- बस यही तुम्हारे प्रश्न, तुम्हारी जिज्ञासा का उत्तर है। पृथ्वी में सर्वव्याप्त पानी होने के बावजूद जहाँ वह प्रकट है या कर लिया गया है, आप वहीं तो प्यास बुझा पाते हैं।इसी प्रकार ईश्वर जो सूक्ष्म शक्ति है, घट-घट में व्याप्त है, ये तीर्थ स्थल, कुँए और जलाशयों की भाँति, उस सूक्ष्म शक्ति के प्रकट स्थल हैं, जहाँ किसी महान आत्मा के तप से, श्रम से, उसकी त्रिकालदर्शी सोच से वो सूक्ष्म-शक्ति इन स्थानों पर प्रकट हुई और प्रकृति के विराट आंचल में समा गई।

जहां कालान्तर के बाद आज भी जब हमें अपनी आत्मशक्ति की जरूरत होती है तो इन स्थलों पर जाकर अपनी विलीन आत्म-शक्ति को प्राप्त करते हैं। दूसरे शब्दों में हमारी इच्छा शक्ति को यहां आत्मशक्ति प्राप्त होती है और हमें प्यास लगने पर कुँआ खोदने की जरूरत नहीं होती। इन पुण्य स्थलों से हमें वह अभिष्ट मिल जाता है जो हमें जीवन में शान्ति और सुगमता प्रदान करता है।

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